जयपुर। जयपुर के आराध्य गोविन्द देवजी का विग्रह (प्रतिमा) भगवान श्रीकृष्ण का साक्षात स्वरुप है। पौराणिक इतिहास, किवदंतियों और कथाओं की मानें तो यह कहा जाता है कि श्रीगोविन्द का विग्रह हूबहू भगवान श्रीकृष्ण के सुंदर और नयनाभिराम मुख मण्डल व नयनों से मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण के तीन विग्रह बनाए गए। तीनों विग्रह ही राजस्थान में है। दो विग्रह तो जयपुर में है और तीसरे विग्रह करौली में श्री मदन मोहन जी के नाम से ख्यात है। जयपुर में श्री गोविन्द देवजी के अलावा श्री गोपीनाथ जी का विग्रह है। यह विग्रह भी उतना ही पूजनीय और श्रद्धावान है, जितने गोविन्द देव जी और मदन मोहन जी का विग्रह है। तीनों ही विग्रह भगवान श्रीकृष्ण का साक्षात स्वरुप माने जाते हैं। इतिहासविदें और धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ ने ये तीनों विग्रह बनवाए थे। अर्जुन के पौत्र महाराज परीक्षित ने बज्रनाभ को मथुरा मण्डल का राजा बनाया था। बज्रनाभ की अपने पितामह श्रीकृष्ण के प्रति खासी श्रद्धा थी और उसने मथुरा मण्डल में श्रीकृष्ण जी की लीला स्थलियों का ना केवल उद्धार किया, बल्कि उनका साक्षात विग्रह बनाने का निश्चय किया। बज्रनाभ की दादी ने भगवान श्रीकृष्ण को देखा था। दादी के बताए अनुसार बज्रनाभ ने श्रेष्ठ कारीगरों से विग्रह तैयार करवाया। इस विग्रह को देखकर बज्रनाभ की दादी ने कहा, कि भगवान श्रीकृष्ण के पांव और चरण तो उनके जैसे ही हैं, पर अन्य बनावट भगवान श्री से नहीं मिलते हैं। बज्रनाभ ने इस विग्रह को मदन मोहन जी का नाम दिया। यह विग्रह करौली में विराजित है। बज्रनाभ ने दूसरा विग्रह बनवाया, जिसे देखकर दादी ने कहा कि इसके वक्षस्थल और बाहु भगवान स्वरुप ही है। शरीर के दूसरे अवयव भगवान श्रीकृष्ण से मेल नहीं खाते हैं। इस विग्रह को बज्रनाभ ने भगवान श्री गोपीनाथ जी का स्वरुप कहा। भगवान का यह स्वरुप पुरानी बस्ती में भव्य मंदिर में विराजित है। दादी के बताए हुलिये के आधार पर तीसरा विग्रह बनवाया गया तो उसे देखकर बज्रनाभ की दादी के नेत्रों से खुशी के आसूं छलक पड़े और उसे देखकर दादी कह उठी कि भगवान श्रीकृष्ण का अलौकिक, नयनाभिराम और अरविन्द नयनों वाला सुंदर मुखारबिन्द ठीक ऐसा ही था। भगवान का यह तीसरा विग्रह श्री गोविन्द देवजी का स्वरुप कहलाया, जो जयपुर के सिटी पैलेस के पीछे जयनिवास उद्यान में है। भगवान के इस अलौकिक विग्रह को देखकर को बज्रनाभ भी आनान्दित हो गए। फिर उन तीनों विग्रह को विधि-विधान से भव्य मंदिर बनाकर विराजित किए। भगवान श्रीकृष्ण के साक्षात स्वरुप के विग्रह होने के कारण भक्तों में इनके प्रति खासी श्रद्धा है और मान्यता भी है। तीनों विग्रहों के दर्शन के लिए रोजाना लाखों भक्त आते हैं और हर हिन्दू इनके दर्शन को लालायित रहता है। श्री गोविन्ददेवजी तो जयपुर के आराध्य है। आज भी हजारों नागरिक ऐसे हैं, जो मंगला आरती से पहले ही भगवान के दर्शन के लिए मंदिर पहुंच जाते हैं और इनके दर्शन के बाद ही कोई कार्य शुरु करते हैं। जयपुर राजपरिवार तो भगवान श्रीकृष्ण को राजा और खुद को उनका दीवान मानकर सेवा-पूजा करता रहा है। ठाकुरजी की झांकी अत्यधिक मनोहारी है। जयपुर घूमने आए हर पर्यटक (हिन्दू धर्मावलम्बी)श्रीगोविन्द देव जी के दर्शन करने जरुर आते हैं। ऐसा ही कुछ आकर्षण भगवान श्री गोपीनाथ जी और श्री मदन मोहन के विग्रह का है, जो भक्तों को अपने साथ बांधे रखता है। कहा जाता है कि इन तीनों विग्रहों के दर्शन एक दिन में ही करने को काफी शुभ माना जाता है।
जयपुर के राजाओं ने बचाया विग्रह
जिस तरह भगवान श्रीकृष्ण के तीनों विग्रह (श्री मदन मोहन जी, श्री गोपीनाथ जी और श्री गोविन्द देवजी) के निर्माण का इतिहास रोचक है, वैसे ही भगवान के विग्रहों को आततायी शासकों से सुरक्षित बचाए रखने और इन्हें पुर्न विराजित करने का इतिहास भी उतना ही प्रेरणादायी है।
श्री गोविन्द देवजी, श्री गोपीनाथ जी और श्री मदन मोहन जी का विग्रह करीब पांच हजार साल प्राचीन माना जाता है। बज्रनाभ शासन की समाप्ति के बाद मथुरा मण्डल व अन्य प्रांतों पर यक्ष जाति का शासन रहा। यक्ष जाति के भय व उत्पाद के चलते पुजारियों ने तीनों विग्रह को भूमि में छिपा दिया। गुप्त शासक नृपति परम जो वैष्णव अनुयायी थे। इन्होंने भूमि में सुलाए गए स्थलों को खोजकर भगवान के विग्रहों को फिर से भव्य मंदिर बनाकर विराजित करवाया। फिर दसवीं शताब्दी में मुस्लिम शासक महमूद गजनवी के आक्रमण बढ़े तो फिर से भगवान श्रीकृष्ण के इन विग्रहों को धरती में छिपाकर उस जगह पर संकेत चिन्ह अंकित कर दिए। कई सालों तक मुस्लिम शासन रहने के कारण पुजारी और भक्त इन विग्रह के बारे में भूल गए। सोलहवीं सदी में ठाकुरजी के परम भक्त चैतन्यू महाप्रभु ने अपने दो शिष्यों रुप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को वृन्दावन को भेजकर भगवान श्रीकृष्ण के लीला स्थलों को खोजने को कहा। दोनों शिष्यों ने भगवान के लीला स्थलों को खोजा। इस दौरान ही भगवान श्रीगोविन्द देवजी ने रुप गोस्वामी को सपने में दर्शन दिए और उन्हें वृन्दावन के गोमा टीले पर उनके विग्रह को खोजने को कहा। सदियों से भूमि में छिपे भगवान के विग्रह को ढूंढकर रुप गोस्वामी ने एक कुटी में विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा की। मुगल शासक अकबर के सेनापति और आम्बेर के राजा मानसिंह ने इस मूर्ति की पूजा-अर्चना की। 1590 में वृन्दावन में लाल पत्थरों का एक सप्तखण्डी भव्य मंदिर बनाकर भगवान के विग्रह को यहां विराजित किया। मुगल साम्राज्य में इससे बड़ा देवालय नहीं बना। बाद में उड़ीसा से राधारानी का विग्रह श्री गोविन्द देवजी के साथ प्रतिष्ठित किया गया। मुगल शासक अकबर ने गौशाला के लिए भूमि दी, लेकिन मुगल शासक औरंगजेब ने गौशाला भूमि के पट्टे को रद्द कर ब्रजभूमि के सभी मंदिरों व मूर्तियों को तोडऩे का हुक्म दिया तो पुजारी शिवराम गोस्वामी व भक्तों ने श्री गोविन्द देवजी, राधारानी व अन्य विग्रहों को लेकर जंगल में जा छिपे। बाद में आम्बेर के मिर्जा राजा जयसिंह के पुत्र रामसिंह के संरक्षण में ये विग्रह भरतपुर के कामां में लाए गए। यहां राजा मानसिंह ने आमेर घाटी में गोविन्द देवजी के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की। जो आज कनक वृन्दावन कहलाता है और यह प्राचीन गोविन्द देव जी का मंदिर भी है। जयपुर बसने के बाद सवाई जयसिंह ने कनक वृंदावन से श्री राधा-गोविन्द के विग्रह को चन्द्रमहल के समीप जयनिवास उद्यान में बने सूर्य महल में प्रतिष्ठित करवाया। चैतन्य महाप्रभु की गौर-गोविन्द की लघु प्रतिमा को भी श्री गोविन्द देवजी के पास ही विराजित किया। श्री गोविन्ददेवजी की झांकी में दोनों तरफ दो सखियां खड़ी है। इनमें एक विशाखा सखी सवाई जयसिंह ने बनवाई थी। राधा-रानी की सेवा के लिए यह प्रतिमा बनवाई गई। दूसरी प्रतिमा सवाई प्रताप सिंह ने बनवाई। यह ललिता सखी है, जो उस समय भगवान श्री गोविन्ददेवजी की पान सेवा किया करती थी। उस सेविका के ठाकुर के प्रति भक्ति भाव को देखते हुए ही सवाई प्रताप सिंह ने उनकी प्रतिमा बनाकर विग्रह के पास प्रतिस्थापित की। भले ही इतिहास में और वर्तमान में भी गाहे-बगाहे आम्बेर-जयपुर राजवंश के राजाओं का मुगल शासकों से वैवाहिक संबंध और उनके साम्राज्य को बढ़ाने में सहयोग करने को लेकर आलोचनाएं होती रही है, लेकिन यह भी उतना ही सत्य और प्रमाणिक है कि मुगल शासक औरंगजेब के समय भगवान श्रीकृष्ण के तीनों विग्रहों समेत अन्य हिन्दु देवी-देवताओं की सुरक्षा में जयपुर राजाओं की महती भूमिका रही। तब भगवान श्रीगोविन्ददेवजी, श्री गोपीनाथ जी, श्री मदन मोहन जी का विग्रह तो जयपुर शासकों की बदौलत ही सुरक्षित रहे और पूरे मान-सम्मान से प्रतिस्थापित भी किए गए।
भगवान शिवजी का तांत्रिक स्वरूप है शरभावतार
- राकेश कुमार शर्मा
जयपुर। इतिहास है, लेकिन भगवान शिवजी का एक ऐसा स्वरूप का भी मंदिर है, जिसके बारे में जयपुरवासी कम ही जानते हैं। वह है भगवान शिवजी का तांत्रिक स्वरूप धारण करने वाले शरभावतार का मंदिर। शरभावतार मंदिर मंगला माता मंदिर के पास शुक्लपुरी में स्थित है। भगवान का यह स्थल देखने में भले ही छोटा व साधारण हो, लेकिन बड़ा चमात्कारिक है। पक्षीराज के नाम से विख्यात शरभावतार भगवान शिवजी का परम तांत्रिक स्वरुप माना ाता है। इसकी उपासना गुप्त व अत्यंत कठिन होने से सिद्ध तांत्रिक भी कतराते हैं। जयपुर के शरभावतार मंदिर की बड़ी महिमा है। हालांकि कम ही लोगों को इस मंदिर और भगवान शिवजी के इस स्वरूप का ज्ञान है। फिर भी बड़ी संख्या में साधक और भक्त नियमित रुप से मंदिर आते हैं। सावन, महाशिवरात्रि और नवरात्रों में विशेष अनुष्ठान के आयोजन होते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि सवाई माधोसिंह प्रथम एक बार शरभावतार मंदिर के सेवक (पुजारी)को अपनी सेना के साथ युद्ध में ले गए। दुश्मनों की सेना जैसे ही दिखाई दी, उन्होंने केवल तंत्र विद्या से ही बिना युद्ध के दुश्मनों को भगा दिया।
पक्षीराज शरभवतार का अनुष्ठान परम शक्तिशाली शत्रु को समूल नष्ट करने की क्षमता रखता है। ब्रहाण्ड की सभी तांत्रिक शक्तियों का समावेश होने के कारण यह सर्वाधिक प्रभावशाली माने जाते हैं। अत्यंत गूढ और भयानक स्वरुप होने के कारण प्राणों पर संकट आने की स्थिति में ही इनका अनुष्ठान किया जाता है। यदि इनके अनुष्ठान में जरा सी भी चूक हो जाए तो साधक को भारी नुकसान होने का अंदेशा रहता है। आकाश भैरव कल्प के दारुण सपाक (शरभ स्त्रोत) नामक हस्तलिखित ग्रंथ में महाप्रतापी पक्षीराज के स्वरूप, मंत्र और अनुष्ठान की जानकारी है कि शत्रु के प्राणों को कु्रद्ध यमदूतों द्वारा बलपूर्वक ले जाने, फरसे जैसी चोंच से टुकटे-टुकडे हुए शत्रु के कालपाश में बंधकर यमलोक चले जाने, कुछ शत्रुओं के गदा की फटकार से उड़ जाने और कुछ मूसल के प्रहार से मारे जाने और पक्षीराज की मुटठी के दृढ प्रहार से शत्रुओं के सिर चकनाचूर हो जाने आदि की कामना करते हुए महाभयंकर शरभजी के शरणागत होने की इच्छा की गई है। पक्षीराज का चित्र ब्रह्मपुरी में चमत्कारेश्वरी माता के मंदिर में मौजूद है। इसके अलावा सिटी पैलेस स्थित राजराजेश्वर शिवालय में भी यह विचित्र स्वरुप रखा हुआ है। यहां के तांत्रिक मानते है कि कु्रद्ध परीक्षाराज के कंठ से भयानक ध्वनि भैरव के बिना नहीं निकल सकती। इसलिए इनके कंठ में भैरव विराजमान रहते हैं। चतुर्भुजी पक्षीराज के बाएं हाथ में सर्प और दाएं हाथ में शक्ति है। अंगुलियों के स्थान उनके गरुड जैसे पंजे है। अति भयंकर और महाक्रोधी पक्षीराज का एक ओर स्वरूप भी है, वे कवच बनकर साधक की रक्षा भी करते हैं।
नरहरि को शांत करने के लिए शिवजी को लेना पड़ा शरभावतार
शिव पुराण में बताया है कि राजा दत्ति के दो पुत्र कनक शिपु व कनकाक्ष उत्पन्न हुए। वे दोनों ही देवताओं के शत्रु थे। कनकाक्ष को तो भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लेकर मारा। कनकशिपु के चार पुत्र हुए। इनमें सबसे छोटा प्रहलाद था, जो बड़ा ही सत्यवादी और भगवान विष्णु का परम भक्त था। एक दिन कनकशिपु ने प्रहलाद की हत्या करनी चाही तो भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर उसका वध किया। इसके बाद भी भगवान का क्रोध शांत नहीं हुआ और वे सम्पूर्ण सृष्टि भस्म करने पर उतारु हो गए। भगवान का प्रचंड रुप देकर देवता भी कांपने लगे। भक्त प्रहलाद को भगवान के पास भेजकर शांत करने को कहा, लेकिन प्रहलाद को देखकर भगवान ज्यादा क्रोधित हो उठे। देवताओं ने भगवान शिवजी की शरण लेकर प्रभु विष्णु को शांत करने में सहायता मांगी। देवताओं ने कहा, आपने पहले भी भगवान विष्णु के क्रोध को आपने वीरभद्र के जरिए शांत किया था। इस पर भगवान शिवजी ने अपने गण वीरभद्र को याद किया तो वह तुरंत हाथ जोड़कर हाजिर हो गए। भगवान ने गण से कहा कि नरहरि क्रोधित है। उन्हें विनम्रता से क्रोध शांत का प्रयास करना। यदि वे काबू में नहीं आएं तो शक्ति का प्रदर्शन करना। भगवान का आदेश सुनकर वीरभद्र नरहरि के पास पहुंचे और उनसे प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभु आपने नरहरि का अवतार संसार की रक्षा के लिए लिया है। आप प्रलय करने का उपाय नहीं करें। भगवान शिवजी की भी यहीं आज्ञा है, पर नरहरि नहीं माने और वीरभद्र को वहां से चले जाने को कहा। वे नहीं गए तो नरहरि ओर गुस्से में हो गए। इस पर वीरभद्र ने आग्रह करते हुए कहा कि भगवान शिवजी का अनुरोध ठुकराना उचित नहीं है। जिस समय आपने कमठ का अवतार लिया था, उस समय उन्होंने तुन्हारे सिर को जलाकर अपने हार में पिरो लिया था। जब तुमने वाराह अवतार लिया तब भगवान शिवजी ने ही आप पर काबू पाया और इस सृष्टि को प्रलय से बचाया। नरहरि ने यह सुना तो वे ओर क्रोधित हो उठे और वीरभद्र को पकडऩे का प्रयास किया। इस पर वीरभद्र ने अपना शरीर आकाश में छिपा लिया। गण वीरभद्र की स्थिति देखकर भगवान शिवजी भी अपने अद्भुद रुप में प्रकट हो गए। उनका आधा शरीर सिंह का था, जिसमें दो पंख व चोंच, सहस्त्र भुजाएं, शीश पर जटाएं, मस्तक पर चन्द्रमा और मुंह में भयंकर वज्र के समान दांत थे। उनका यह रुप देखकर देवता भी कांपने लगे और क्रोधित नरहरि भी निस्तेज हो गए। शरभ अवतार धारण किए हुए शिवजी ने बलपूर्वक अपनी भुजाओं में नरहरि को पकड़ लिया और आकाश में उडऩे लगे। तब नरहरि ने अपना रुप त्याग दिया और वे लोप हो गए। देवताओं ने शरभ अवतार शिवजी की पूजा अर्चना की। तब शिवजी ने कहा कि मेरे में और भगवान विष्णु में कोई भेद नहीं है। दोनों का रुप एक ही है। शिवजी ने रुप त्यागने के बाद नरहरि का सिर और चर्म उठा लिया। सिर तो अपनी माला का सुमेरु बनाया और भक्ति के साथ उनका चर्म ओढ़ लिया। फिर अंर्तध्यान हो गए। ऐसा ही स्वरुप जयपुर में शरभावतार मंदिर में विराजित है। भक्त लोग शरभावतार को भगवान शिव जी का तांत्रिक स्वरूप मानते हैं।